स्थापना – संविधान समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग की स्थापना सन 2000 मे की गई थी। इसके अध्यक्ष उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश एम एन वेंकटचलाइया थे। इसमे कुल 11 सदस्य थे।
कार्य –
- संसदीय लोकतन्त्र की संस्थाओ को सशक्त बनाना।
- निर्वाचन सुधार और राजनीतिक जीवन का मानकीकरण
- सामाजिक परिवर्तन और विकास की गति सुनिश्चित करना।
- साक्षरता को प्रोत्साहन और रोजगार के अवसर उत्पन्न करना।
- विकेन्द्रीकरण अर्थात पंचायती राज संस्थाओ को अधिकारमूलक एव सशक्त बनाना।
- मौलिक अधिकारो का विस्तारीकरण।
- मौलिक कर्तव्यो का क्रियान्वयन।
- वित्तीय एव राजकोषीय नीति पर विधायी नियंत्रण।
आयोग के लिए चिंता का विषय –
- सरकारों ने संवैधानिक आस्था का मूलत: उल्लाघन किया है लोक सेवक और संस्थान अपनी मूल कार्य लोगो की सेवा के प्रति सजग नही रहा है और संविधान मे परिकल्पित प्रतिज्ञा को भी पूरा नही किया जा सका है।
- सबसे बड़ी चिंता का विषय बेतहाशा खर्चे और राजकोषीय घाटे का लगातार बढ़ते जाना।
- राजनीतिक माहौल और गतिविधिया दिन प्रतिदिन दूषित हो रही है। भ्रष्ट्राचार और राजनीतिक अपराधी नौकरशाह गठजोड़ काफी उछ स्टार पर पहुँच चुका है।
- रास्ट्रीय अखंडता एव सुरक्षा के प्रश्न को उतना महत्व नही दिया गया जितनी आवश्यकता है।
- निर्वाचन व्यवस्था की दुर्बलता के कारण संसद एव राजी विधानमडलो मे पर्याप्त प्रतिनिधित्व का गुण ना होना।
आयोग की सिफ़ारिशे – आयोग ने कुल 249 सिफ़ारिशे की है इनमे से 58 सिफारिशें संविधान संशोधन से संबंधित है , 86 विधायिका उपायों से तथा शेष 105 सिफारिशें कार्यपालिका कार्यों से प्राप्त की जा सकती हैं।
- विभेद के प्रतिषेध (अनु. 15 एवं 16) के दायरे में ‘प्रजातीय या सामाजिक उद्भव, राजनीतिक या अन्य विचार, संपत्ति या जन्म’ को भी शामिल किया जाये।
- शिक्षा के अधिकार को और अधिक विस्तृत किया जाये।
- निवारक निषेध (22) के संबंध अधिकतम अवधि छह माह होना चाहिए।
- मौलिक कर्तव्यों को लोकप्रिय एवं प्रभावी बनाने के लिए उन उपायों एवं साधनों को अपनाया जाना चाहिए, जिनसे इस उद्देश्य की पूर्ति हो सके।
- मौलिक करतावयन के क्रिन्वयन के संबंध में न्यायाधीश वर्मा समिति की सिफ़ारिशों को यथासंभव लागू किया जाना चाहिए।
- संविधान के द्वारा लोकपाल की नियुक्ति करनी चाहिए और प्रधानमंत्री को इसके क्षेत्राधिकार से बाहर रखना चाहिए और राज्यो में लोकायुक्त का गठन किया जाना चाहिए।
- उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालय की खंडपीठो में अनुसूचित जाती, जनजाति एवं आँय पिछड़ा वर्ग के लोगो के लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जानी चाहिए।
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