दुनिया की श्रेष्ठतम टेक्नोलॉजी विकसित करने के साथ पेट्रोल पर निर्भरता खत्म करने की तैयारी
उत्तराखंड के काशीपुर में बायोइथेनॉल उत्पादन संयंत्र शुरू हो गया है। यह भारत का पहला ऐसा संयंत्र है, जिसकी गिनती दूसरी पीढ़ी के संयंत्रों में होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह स्वदेश में विकसित टेक्नोलॉजी से बना है, जिसे डीबीटी-आईसीटी सेंटर फॉर बायोसाइंसेंस ने विकसित किया है और जो दुनिया की ऐसी किसी भी टेक्नोलॉजी से स्पर्द्धा करने में सक्षम है। जैविक ऊर्जा को समर्पित इस सेंटर की स्थापना केंद्रीय जैव-प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने 2008 में मुंबई के इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी में की थी। प्लांट किसी विश्वविद्यालय के शोध केंद्र में विकसित प्रौद्योगिकी को सफलतापूर्वक जमीनी रूप देने का सफल उदाहरण है। निश्चित ही यह भारत के तीन आयामी अभियान, मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत, अौर स्टार्टअप इंडिया की दिशा में अहम कदम साबित होगा।
परिवहन की बात करें तो दूसरी श्रेणी के ऊर्जा साधनों की भारत की जरूरत 150 गीगा वॉट के करीब है, जो 7000 करोड़ लीटर पेट्रोल-डीजल से प्राप्त ऊर्जा के बराबर होती है। खेद है कि इसकी 80 फीसदी पूर्ति कच्चे तेल के आयात से होती है। भारत ने कार्बन उत्सर्जन घटाने और कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता कम करने का दोआयामी लक्ष्य सामने रखा है। इस दिशा में कृषि से निकले उत्पाद और अन्य अक्षय ऊर्जा स्रोत आंशिक या पूर्ण रूप से पेट्रो ईंधनों की जगह लेकर देश की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। हमने 2009 की राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति में पेट्रोल-डीजल में 5 फीसदी हरित जैव-ईंधन मिलाना अनिवार्य तो कर दिया, लेकिन डीजल के लिए तो हमारे पास कोई विकल्प नहीं है और पेट्रोल में बायो इथेनॉल मिलाने से बमुश्किल 3 फीसदी लक्ष्य पूरा होता है। अड़चन यह है कि एक तो हमारे पास पर्याप्त मैन्यूफेक्चरिंग कैपेसिटी नहीं है और दूसरा बायो इथेनॉल के लिए पर्याप्त मोलसेस या शीरा (गन्ने के इस्तेमाल के बाद बचा उत्पाद) नहीं है तो बायो डीजल के लिए अावश्यक अखाद्य वनस्पति तेल नहीं है। फिर यह भी सही है िक बायो इथेनॉल और वनस्पति तेल अक्षय ऊर्जा देने वाले ईंधन तो हैं, वे ऊर्जा अनुपात व कार्बन उत्सर्जन घटाने के मामले में कमजोर हैं। संयोग से उनकी सीमित उपलब्धता से 2017 तक 20 फीसदी उपयोग के सरकारी लक्ष्य की तो बात क्या 5 फीसदी मिश्रण लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पा रहा है।
यह सब इसलिए बताया कि इसी वजह से दूसरी पीढ़ी (2जी) के बायो ईंधन विकल्प खोजने इतने जरूरी हैं ताकि निकट भविष्य में पेट्रो ईंधन में 10 फीसदी ऐसे विकल्प मिश्रित किए जा सके। 2-जी बायो ईंधन वे होते हैं, जिन्हें ऐसे अपशिष्ट पदार्थ से निकाला जाता है जो मानव या पशु खाद्य शृंखला पर प्रभाव नहीं डालते, जिसका परिणाम पेट्रो ईंधन की तुलना में 60 फीसदी से ज्यादा कार्बन कटौती में होता है। इस दिशा में भारत की संभावनाएं काफी उजली हैं, क्योंकि बढ़ती युवा आबादी के बावजूद हमने खाद्य आत्म-निर्भरता हासिल की है। इससे गैर-पशु आहार किस्म के कृषि अपशिष्ट पदार्थ काफी मात्रा में उपलब्ध हैं। फिर म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट जैसे विकल्प भी हैं। दोनों को मिलाएं तो इतनी क्षमता है कि यह देश की पेट्रोल जरूरत का स्थान ले सकती है।
पंजाब व हरियाणा में धान का भूसा, गुजरात व महाराष्ट्र में कपास व अरंडी के डंठल, उत्तरप्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में गन्ने का कचरा और असम, बंगाल और उड़ीसा में बांस को मिला ले तो हर साल 2.50 करोड़ टन अतिरिक्त कृषि निकला बायो सामग्री मिलती है। इससे 7.50 करोड़ टन जैव-ईंधन बनाया जा सकता है, जो पूरे देश की पेट्रोल खपत से चार गुना अधिक है। फिर बड़े-छोटे शहरों में 1.50 करोड़ टन कचरा एकत्रित किया जाता है, जिसमें 4 करोड़ टन बायो ईंधन पैदा करने की क्षमता है। इस तरह पहले से ही उपलब्ध इन स्रोतों को देखते हुए 10 फीसदी बायो ईंधन के इस्तेमाल का लक्ष्य आसानी से हासिल किया जा सकता है। बशर्ते व्यावहारिक टेक्नोलॉजी उपलब्ध हो। अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के विकास के साथ मरीन एग्रीकल्चरल फॉर्मिंग और बेकार पड़ी भूमि के इस्तेमाल से नेपियर घास जैसी अधक ऊर्जा देने वाली फसलों का उत्पादन बढ़ाकर देश की जैव-ईंधन बनाने की क्षमता को अौर भी बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार भारत दक्षिण-पूर्वी एशिया की तरह 2जी बायो ईंधन का प्रमुख सप्लायर बन सकता है।
भारत ने बड़ी छलांग लगाकर 2008 में मुंबई के इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी में 25 करोड़ रुपए की लागत से पहला जैव ईंधन शोध केंद्र स्थापित किया। इसका काम था कि 2जी बायो टेक्नोलॉजी को विकसित कर जमीनी इस्तेमाल लायक बनाकर उद्योग जगत को सौंपना। डीपीटी-आईसीटी सेंटर ऐसी अत्याधुनिक शोध सुविधा है, जो दुनिया के श्रेष्ठतम का मुकाबला कर सकती है। यहां 100 वैज्ञानिक लगातार जैव ऊर्जा प्रौद्योगिकी पर काम कर रहे हैं। इसी केंद्र ने वह अद्भुत 2जी इथेनॉल टेक्नोलॉजी का विकास किया है, जिसे उत्तराखंड के डिमॉन्ट्रेशन प्लांट में साकार किया गया है। इस टेक्नोलॉजी की खासियत यह है कि इसकी क्षमता आसानी से बढ़ाई जा सकती है, इसमें किसी भी तरह के कृषि अपशिष्ट पदार्थ का इस्तेमाल किया जा सकता है और न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के किसी भी भाग में बखूबी इस्तेमाल की जा सकती है। काशीपुर प्लांट में प्रतिवर्ष 7.50 लाख लीटर अल्कोहल का उत्पादन किया जा सकता है।
शुरुआत में लगने वाली कम पूंजी, किसी भी कृषि पदार्थ को इस्तेमाल करने की सुविधा और कनर्वशन की प्रभावी क्षमता के कारण यह दुनियाभर में लोकप्रिय होगी। यह भारत के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, जहां किसानों के पास छोटे खेत हैं और भौगोलिक स्थिति व मौसम के मुताबिक कृषि उत्पाद बदलता जाता है। इस मामले में टेक्लोलॉजी बहुत लचीली है यानी लकड़ी की झिल्पियों से लेकर कपास के पौधे के डंठल और चावल के भूसे तक किसी भी जैव पदार्थ का इस्तेमाल कर जैव ईंधन तैयार किया जा सकता है। यह टेक्नोलॉजी बायोमॉस से 24 घंटे में अल्कोहल बना देती है, जबकि विकसित देशों की टेक्नोलॉजी को भी इसमें 3 से 5 दिन का समय लगता है। फिर इसकी क्षमता 100 टन बायोमास प्रतिदिन से लेकर 500 टन प्रतिदिन तक घटाई बढ़ाई जा सकती है। यह किसान की आमदनी भी बढ़ाएगी। इसके अलावा नौकरियां, कच्चे तेल के आयात में कमी और पर्यावरण प्रदूषण पर लगाम जैसे फायदे तो है ही।Source : DB
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